*आज भी सबकी कहानी, कहीं अकेली सी है .....*
कहीं माता की लोरी , कहीं बच्चो की बोली सी है,
कभी सखी की बाते , कभी नटखट शर्मीली सी है,
कबीलों के बीच में बसती, एक उजड़ी हवेली सी है,
पूरी तो नहीं, बस उलझी अधूरी सी है ।।
वो कहानी कहती तो है , पर ऐसा लगता है बताती कुछ नहीं ,
मुझे तो लगता है मीठी ,पर पूरी जलेबी सी है ।।
मुझसे मिलती नहीं , पर हक जताती है ,
थोड़ी सी ज़िद्दी , फिर भी रूठी सजावट सी है ।।
चूल्हे पर जलती कड़ाई पर लगी काहि सी है ,
या यूं कहूं , वो थाली में परोसी भूख सी है ।।
कभी सबकी खुशी , तो अपनों में पराई सी है ,
कुछ ऐसी जो उसकी काली परछाई सी है ,
दिखने में अच्छी , पर कड़वी दवाई सी है ।।
सब साफ़ है , फिर भी कुछ नहीं दिखता
कुछ ऐसी सफ़ाई सी है ,
ये कभी दूर तो कभी पास हुई विदाई सी है ।।
आज भी सबकी कहानी, कहीं अकेली सी है .....
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