Sunday, April 11, 2021

मेरे शहर का इश्क़

शहरों में भटकता इश्क़ अब यक़ीनन मनचला हो चला है , कई लिबाज़ औढ़े है इसने , हां ये थोड़ा वेहशी हो चला है,
दिल की गोद से निकल , अब ये शहर की सड़कों पर निकल पड़ा है ।
अरे जनाब,  जहां नज़रों से नज़र मिलते ही नाप लिए जाते थे अक्सर उन नज़रों में बसे मयखाने को , आज इस इश्क़ के मयखाने में बची मय कितनी है यह भी भाप लिया जाता है । 
दिल में रखी बातों का एक वक़्त गुजरता था कभी जुबां पर आने में , आज जुबां बोल देती है झटपट अपनी बाते, और दिल में रखी बातो का एक वक़्त गुजर जाता है ।
दो शब्दो में जहां समझ जाते थे जो हर बात , आज इस इश्क़ को समझने के लिए , पूरी किताब लिखी जाती हैं।।




















यूं तो अल्फाजों को जब मिलता था वक़्त शाम का 

Saturday, April 10, 2021

ज़ुबान से छिनी , आवाज़ ढूंढता हूं .......

ज़ुबान से छिनी , आवाज़ ढूंढता हूं ,
मैं कैसे कहूं , मैं मेरे अल्फाज़ ढूंढता हूं ,
सुबह की चीखे , शाम तक खामोशियों में बदल जाती है ...
मैं फिर भी उनमें , तेरे खर्च ढूंढता हूं ।

क्या कहूं और क्यों कहूं , के बीच का अब तर्क ढूंढता हूं ,
तेरे बातों पर ना बोलूं , मैं ऐसे विकल्प ढूंढता हूं ,
मन में होता शोर , आज पहेली में बदल जाता है ...
मैं फिर भी इनमें,  तेरे लिए हल ढूंढता हूं ।

मैं शांत हूं , पर हरपल निकलते एक क्रोध को ढूंढता हूं ,
किताबों के मेले में , तेरे आने वाले सवाल ढूंढता हूं ,
अब बाते आकार , कुछ फैसले में बदल जाती है ....
मैं फिर भी इनमें , होने वाले दर्द ढूंढता हूं ।

ज़ुबान से छिनी , आवाज़ ढूंढता हूं ,
मैं कैसे कहूं, मैं मेरे लब ढुंढता हूं , 
सुबह की चीखे, शाम तक खामोशियों में बदल जाती हैं .....
मैं फिर भी इनमें , तेरे खर्च ढुंढता हूं ।।



Thursday, January 14, 2021

बीते वक्त के पन्ने .......सा आज

समय सा चल रहा हूं , मै भी आपसा लड़ रहा हूं ...
आपके दिए आदर्शों को , जगह जगह पर रख रहा हूं ...
सोचते, विचारते, चलते , आपकी तरह ही ढल रहा हूं ..

सर पर काले जुग्नूओ की कुछ कमी सी होने लगी है ...
और सर पर गिरते तेल को ठंडक महसूस होने लगी है ...
कहने से पहले बातो को अब कई बार सोचने लगा हूं ...
सच कहूं , आपके कंधे पर रखे उस बोझ को सहने लगा हूं ...

ठंडे चाय की शिकायत , अब अक्सर नहीं करता , 
आपसे जुड़ी मेरी शिकायत भी , अब नहीं किया करता , 
हालातो को समझ में भी चलने की कोशिश में लगा हूं...
सच कहूं , आपके उन तकलीफों को अब समझने लगा हूं....

अब एक दर्द सा बना रहता है मेरे सर मै ...
बदन की थकावट भी आपसे मिलने जुलने लगी है ...
आपको होती शिकायतों से अब मिलने लगा हूं...
सच कहूं , आपके उन सर्सराते लम्हों को मैं जीने लगा हूं...

सच-झूठ की मंडी में , मैं भी भटकता हूं इन दिनों ,
लोगो के थोड़े बहुत चेहरे , मैं भी पढ़ता हूं इन दिनों ,
अब औरो के माथे पर आयी सिलवटें देख सवाल करने लगा हूं ...
सच कहूं , आपके टूटते उम्मीदों को , महसूस करने लगा हूं...

कोरी ठंड में , मैं भी दबे पांव निकलने लगा हूं ...
फटी जुराबो को अब कुछ रोज़ और पहने लगा हूं ...
अब जिम्मेदारियों से जीने की आदत , आपसी डालने लगा हूं ....
सच कहूं , आप के परवाह की परिभाषा,  मैं भी समझने लगा हूं..

अब एक पेन और डायरी मैं भी रखता हूं ,
कभी कभी तो लंबी लंबी लाइन में भी घंटो लगता हूं ,
आपकी की तरह सबकी बातो को याद कर, बाते भी करता हूं...
सच कहूं आपसे , कुछ नादानो को थोड़ा पागल सा लगता हूं ...

आपकी और आपके साथ बीते दिनों को बहुत याद आती है ..