मैं कैसे कहूं , मैं मेरे अल्फाज़ ढूंढता हूं ,
सुबह की चीखे , शाम तक खामोशियों में बदल जाती है ...
मैं फिर भी उनमें , तेरे खर्च ढूंढता हूं ।
क्या कहूं और क्यों कहूं , के बीच का अब तर्क ढूंढता हूं ,
तेरे बातों पर ना बोलूं , मैं ऐसे विकल्प ढूंढता हूं ,
मन में होता शोर , आज पहेली में बदल जाता है ...
मैं फिर भी इनमें, तेरे लिए हल ढूंढता हूं ।
मैं शांत हूं , पर हरपल निकलते एक क्रोध को ढूंढता हूं ,
किताबों के मेले में , तेरे आने वाले सवाल ढूंढता हूं ,
अब बाते आकार , कुछ फैसले में बदल जाती है ....
मैं फिर भी इनमें , होने वाले दर्द ढूंढता हूं ।
ज़ुबान से छिनी , आवाज़ ढूंढता हूं ,
मैं कैसे कहूं, मैं मेरे लब ढुंढता हूं ,
सुबह की चीखे, शाम तक खामोशियों में बदल जाती हैं .....
मैं फिर भी इनमें , तेरे खर्च ढुंढता हूं ।।
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