Tuesday, August 1, 2023

वक्त के साथ हम और हमारे साथ वक्त अक्सर बदल जाता है....

वक्त के साथ हम और हमारे साथ वक्त अक्सर बदल जाता है ....

तब तजुर्बा बिखर जाता है , जब उसी से जन्मा हौसला भटक जाता है ...
यूं तो निकलते हैं, हम आप, अक्सर तय वक्त पर घरों से ...
पर, ना जाने क्यों , किसी का रास्ता बदल जाता है, तो कोई रास्ते में बदल जाता है ...
वक्त के साथ हम और हमारे साथ वक्त अक्सर बदल जाता है .....

तब ज़िन्दगी अक्सर ठहर जाती है , जब उसी से उसकी बैसाखी टूट जाती है ... 
यूं तो  जिंदगी में दोस्त बहुत है, पर हमीं से दूर खड़े है..
वोह, क्या है ना , किसी का मकसद निकल जाता हैं, तो कोई मतलबी निकल जाता है ...
वक्त के साथ हम और हमारे साथ वक्त अक्सर बदल जाता है......

तब ज्ञान मार दिया जाता है, जब अभिमान से उसकी वाणी बदल जाती है ...
यूं तो, हम आपने भी पढ़ी किताबे वो , जो उसके लिए अक्सर बदल जाती है...वोह क्या है ना, उसका विज्ञान बदल जाता है तो हमारा विश्वास बदल जाता है...
वक्त के साथ हम और हमारे साथ वक्त अक्सर बदल जाता हैं....

Monday, May 22, 2023

बस यूंही.....

यूं तो ज़िंदगी को समझना इतना आसान नहीं, जितना मुश्किल बना दिया हम_आपने, " या यूं कहे, लोग सामने पड़ी तस्वीर को इंसान समझने लगे है "..
जानते है वो सुन नही सकता, समझ नही सकता, चलना नहीं जानता, कुछ कह नहीं सकता, बेजान सा है , फिर भी हमारा सबसे खास है ।

हमने ज़िंदगी गवा कर अक्सर वो चीज़ कमाई है , जो हमसे कभी नहीं जुड़ती, ठहर जाती है कही किसी कोने में, या फिर दूर रह , ये एहसास दिलाती हैं कि मंज़िल के पीछे तो तुम भाग सकते हो, लेकिन मंज़िल तक पहुंचने से पहले अपनी तकलीफ नहीं बता सकत, लोग सुनेंगे ही नहीं, सुना देंगे...तुम टूटोगे नही , तोड़ दिए जाओगे ।

इसीलिए पहले हासिल करो.....फिर वो होगा जो हम अक्सर देखते है , कुछ भेड़ तुमको देखेंगे तुम्हारे ही पीछे दौड़ेंगे, और जब उनको कुछ हसील करने में वक्त लगेगा, तो तुमको ही कोसेंगे...
तुम्हारी मेहनत को कुछ वक्त के लिए , बताया और संवारा जायेगा , फिर उसी को कुछ वक्त बाद,  मन चाहे अटकलों से उतारा जाएगा...।
"खुशी के दिनों की गिनती महज चार दिन है" , ये बात उतनी सही है , जितना तुम खुद को सही बताने में लगा देते हो ।

मैं चैन ढूंढता हूं, सुकून ढूंढता हूं, लेकिन ये सब खुद में नही, दूसरे की लकीरों में ढूंढता हूं ... भरोसा खुद पर बहुत है , मानो आसमां से भी गिरेंगे तो Parashute तो साथ होगा ही होगा...
मेरा काम तो आसमान छूना है , ये छोटी मोटी दिवारे को मैं नही छूता , ये तो उसका काम है जिसमे में कभी ना पडू, छोटी चीजें मैं कभी नहीं सोचता, इन सबको तो यही रह जाना है , मेरी लड़ाई बहुत बड़ी है ।

कुछ वक्त दो , सब बदल जाएगा , मैने भी इन्टरनेट की दुनिया से कुछ सपने चुराए है, ये चोरी उतनी ही सच्ची है , जितना अली बाबा को मिला खज़ाना..

तेरे इंतजार में मेने दो वक्त की रोटी में कमी कर दी हैं, मैं जानती हूं , तू जरूर कुछ बड़ा करेगा , वक्त काट खाने को आता होगा उस वक्त उसे , जिस वक्त को, वो संवारने में लगी हैं, ताजुब की बात यह है , कि जिस वक्त को सावरता हुआ देखना चाहती है, उसको वो बीते वक्त में अच्छे से जानती हैं ।

बड़ी अजीब सी कश्मकश है , 
खुद को बेहतर करने का वक्त चल रहा है , 
या खुदी में डूब जाने का , फसा के रख दिया हैं, इस शाम के चाय ने ।

बड़े जाहिल लगते है खुद को, कभी खुदी को होशियारी में डूबो देते है ..
अर्श से फर्श तक सफ़र , हम अब अक्सर चुटकियों में तय कर लेते है..

इस ऊपर लिखे , हुनर को हासिल करने कि, तारीफ हमारे बेहतर होने की करनी चाहिए, या हमारा बहुत अधिक बेहतर होने की, तुलना करना मुश्किल है, लेकिन यह तुलना करने की शक्ति रखना ही तो हमें, बेहतर बना रही या फिर कमजोर.. खैर छोड़ देते है , डर लगता इतना ज्यादा सोचने पर ।
वैसे..
आजकल मिलने से पहले , तय हो जाती है वक्त देने की सीमा, जहां लोग कभी मुद्तो गुजार दिया करते थे... यहां क्या सच में खुद को बेहतर करने के लिए हम उनसे काफी आगे निकल जाते है ? ,या यूं कहे, वो जो हमारे साथ उस तरफ दौड़ना नही चाहते, जहां हम दौड़े ( यहां बात इच्छा की है बस) और वह कमज़ोर से दिखने लगते है वक्त के साथ हमें.. क्या, सच में हम सब इतने मजबूत या समृद्ध बन जाते है ,की खुद को संपन बता सके उनके अपेक्षा ।
पता नही ....!! 

लेकीन....
मानसिक और आंतरिक संतुष्टि , भयानक पीड़ा का रूप ले रही है , मन में उठने वाले ये तरंगे, अब खाने लगी है उसको,  जिसको वो बीते वक्त वापस पाने की चाह उठने लगी है ,जिसको वह सुधार सकता था और जीना चाहता था। 
उम्र से पहले खुद को नौजवान और परिपूर्ण करने लगे है हम, 
सब सीमित है ये सोच, लुटना छोड़टूटने में लगे है हम ।

ज्यादा जानते है , लेकिन फिर भी बहुत कुछ बताना चाहते है सब ,
अभी तो तुम्हारी शुरूआत है , इन शब्दों का भी दोहराना चाहते है सब ..

तुमने क्या किया अबतक , कुछ भी नही अभी बहुत कुछ करना बाकी है,
तुम बहुत पीछे हो तुम्हारा आगे जाना बाकी है (बस इसके बीच में ही रख कर मसल दी जायेगी जिंदगी), आगे दौड़ने वाले को पीछे करना, ना जाने कब तुम्हारा मकसद बन जाएगा, दबे पांव जिन्दगी के ऊपर चल , तुमको घर के एक कमरे में आना होगा , और मिलना होगा खुद से , जिसके पास संघर्ष की एक मोटी सी गठरी होगी ( गठरी का आकार मानसिकता के अनुसार लगा सकते है ), जिसे उसने इक्ट्ठा किया है, बताने और जताने के लिए और जो तय करेगा , उसका भविष्य जो उसकी कल्पना मात्र,जिसे उसने चुराया है,इस फैले इन्टरनेट से ।

खुद  को बेहतर या बहुत बेहतर बनाने की जंग , क्या सच में हम आगे ले जा रही हैं, या फिर चक्कर लगवा रही है ,इस गोल दुनिया के..??

खैर...

उसने निश्चित नहीं, अनंत के विकल्प से जोड़ा हैं खुद को..
अनंत जिसका कोई विकल्प नहीं शायद "ज़िंदगी" भी नहीं..

Sunday, April 11, 2021

मेरे शहर का इश्क़

शहरों में भटकता इश्क़ अब यक़ीनन मनचला हो चला है , कई लिबाज़ औढ़े है इसने , हां ये थोड़ा वेहशी हो चला है,
दिल की गोद से निकल , अब ये शहर की सड़कों पर निकल पड़ा है ।
अरे जनाब,  जहां नज़रों से नज़र मिलते ही नाप लिए जाते थे अक्सर उन नज़रों में बसे मयखाने को , आज इस इश्क़ के मयखाने में बची मय कितनी है यह भी भाप लिया जाता है । 
दिल में रखी बातों का एक वक़्त गुजरता था कभी जुबां पर आने में , आज जुबां बोल देती है झटपट अपनी बाते, और दिल में रखी बातो का एक वक़्त गुजर जाता है ।
दो शब्दो में जहां समझ जाते थे जो हर बात , आज इस इश्क़ को समझने के लिए , पूरी किताब लिखी जाती हैं।।




















यूं तो अल्फाजों को जब मिलता था वक़्त शाम का 

Saturday, April 10, 2021

ज़ुबान से छिनी , आवाज़ ढूंढता हूं .......

ज़ुबान से छिनी , आवाज़ ढूंढता हूं ,
मैं कैसे कहूं , मैं मेरे अल्फाज़ ढूंढता हूं ,
सुबह की चीखे , शाम तक खामोशियों में बदल जाती है ...
मैं फिर भी उनमें , तेरे खर्च ढूंढता हूं ।

क्या कहूं और क्यों कहूं , के बीच का अब तर्क ढूंढता हूं ,
तेरे बातों पर ना बोलूं , मैं ऐसे विकल्प ढूंढता हूं ,
मन में होता शोर , आज पहेली में बदल जाता है ...
मैं फिर भी इनमें,  तेरे लिए हल ढूंढता हूं ।

मैं शांत हूं , पर हरपल निकलते एक क्रोध को ढूंढता हूं ,
किताबों के मेले में , तेरे आने वाले सवाल ढूंढता हूं ,
अब बाते आकार , कुछ फैसले में बदल जाती है ....
मैं फिर भी इनमें , होने वाले दर्द ढूंढता हूं ।

ज़ुबान से छिनी , आवाज़ ढूंढता हूं ,
मैं कैसे कहूं, मैं मेरे लब ढुंढता हूं , 
सुबह की चीखे, शाम तक खामोशियों में बदल जाती हैं .....
मैं फिर भी इनमें , तेरे खर्च ढुंढता हूं ।।



Thursday, January 14, 2021

बीते वक्त के पन्ने .......सा आज

समय सा चल रहा हूं , मै भी आपसा लड़ रहा हूं ...
आपके दिए आदर्शों को , जगह जगह पर रख रहा हूं ...
सोचते, विचारते, चलते , आपकी तरह ही ढल रहा हूं ..

सर पर काले जुग्नूओ की कुछ कमी सी होने लगी है ...
और सर पर गिरते तेल को ठंडक महसूस होने लगी है ...
कहने से पहले बातो को अब कई बार सोचने लगा हूं ...
सच कहूं , आपके कंधे पर रखे उस बोझ को सहने लगा हूं ...

ठंडे चाय की शिकायत , अब अक्सर नहीं करता , 
आपसे जुड़ी मेरी शिकायत भी , अब नहीं किया करता , 
हालातो को समझ में भी चलने की कोशिश में लगा हूं...
सच कहूं , आपके उन तकलीफों को अब समझने लगा हूं....

अब एक दर्द सा बना रहता है मेरे सर मै ...
बदन की थकावट भी आपसे मिलने जुलने लगी है ...
आपको होती शिकायतों से अब मिलने लगा हूं...
सच कहूं , आपके उन सर्सराते लम्हों को मैं जीने लगा हूं...

सच-झूठ की मंडी में , मैं भी भटकता हूं इन दिनों ,
लोगो के थोड़े बहुत चेहरे , मैं भी पढ़ता हूं इन दिनों ,
अब औरो के माथे पर आयी सिलवटें देख सवाल करने लगा हूं ...
सच कहूं , आपके टूटते उम्मीदों को , महसूस करने लगा हूं...

कोरी ठंड में , मैं भी दबे पांव निकलने लगा हूं ...
फटी जुराबो को अब कुछ रोज़ और पहने लगा हूं ...
अब जिम्मेदारियों से जीने की आदत , आपसी डालने लगा हूं ....
सच कहूं , आप के परवाह की परिभाषा,  मैं भी समझने लगा हूं..

अब एक पेन और डायरी मैं भी रखता हूं ,
कभी कभी तो लंबी लंबी लाइन में भी घंटो लगता हूं ,
आपकी की तरह सबकी बातो को याद कर, बाते भी करता हूं...
सच कहूं आपसे , कुछ नादानो को थोड़ा पागल सा लगता हूं ...

आपकी और आपके साथ बीते दिनों को बहुत याद आती है ..





Wednesday, October 14, 2020

आज भी कहानी कहीं अकेली सी है......

*आज भी सबकी कहानी, कहीं अकेली सी है .....* 

कहीं माता की लोरी , कहीं बच्चो की बोली सी है,
कभी सखी की बाते , कभी नटखट शर्मीली सी है,
कबीलों के बीच में बसती, एक उजड़ी हवेली सी है,
पूरी तो नहीं, बस उलझी अधूरी सी है ।।

वो कहानी कहती तो है , पर ऐसा लगता है  बताती कुछ नहीं ,
मुझे तो लगता है मीठी ,पर पूरी जलेबी सी है ।।

मुझसे मिलती नहीं , पर हक जताती है ,
थोड़ी सी ज़िद्दी , फिर भी रूठी सजावट सी है ।।
चूल्हे पर जलती कड़ाई पर लगी काहि सी है ,
या यूं कहूं , वो थाली में परोसी भूख सी है ।।

कभी सबकी खुशी , तो अपनों में पराई सी है ,
कुछ ऐसी जो उसकी काली परछाई सी है ,
दिखने में अच्छी , पर कड़वी दवाई सी है ।।

सब साफ़ है , फिर भी कुछ नहीं दिखता
कुछ ऐसी सफ़ाई सी है ,
ये कभी दूर तो कभी पास हुई विदाई सी है ।।

आज भी सबकी कहानी, कहीं अकेली सी है .....


Saturday, April 25, 2020

क्या, बूढ़ा हो गया हूं मैं.... ?

जाड़ों में सर्दी अब ज्यादा लगने लगी है ,
मेरी पास की नज़र भी अब थकने लगी है 
मेरे सर के बालों का रंग भी बदलने लगा है 
ना जाने किसके प्यार में टूट कर बिखरने लगा है ।

अब मेरा चांद नग्न आंखो से साफ नज़र नहीं आता
यही पास में रखा उसका मकान नज़र नहीं आता 
हवाओं को मेरी नाक से अब ज्यदा टकराना पड़ता है 
इन सांसों को भी अब खुलकर इनसे गुजरना नहीं आता

बातो को अब बहुत सोच कर बोलने लगा हूं 
हर वजह पर इन लब्बों को अब चलाना नहीं आता 
वो पूछते है मुझसे आज भी मेरी हर फरमाइश 
पर इन दांतो को अब वो मसलना नहीं आता 

अब मुड़ मुड़ के उस देखने की आदत कम हो रही है 
गर्दन को हसीन मुद्दों से अब वो मिलना नहीं आता 
हर चोट सहन कर रखी है अपने मजबूत सीने पर 
पर अब इस सीने को , वो हर चोट सेहना नहीं आता 

यूं तो , मेरे हाथो ने अब दिमाग का साथ छोड़ दिया है 
तुम्हे कैसे बताऊं इन्होंने खुद को चलाना छोड़ दिया है 
हाथो की दस उंगलिओं को मै हर वक़्त गीन लेता हूं 
पर , मुझे मिले पानी का गिलास अक्सर छोड़ देता हूं 

दौड़कर अब सबको हराना नहीं आता 
हां अब मुझे तितली पकड़ना नहीं आता 
उसकी खिड़की से उतर अब मैं घर नहीं आता 
सच कहूं, पैरों को अब बिस्तर से उतरना नहीं आता 

राहों पर अब लोगो से मिलना हो नहीं पाता 
क्या करू मुझसे अब कहीं निकला नहीं जाता
वो सब कहने लगे है कि बूढ़ा हो गया हूं मैं 
तुम्हीं बताओ ,मुझे तो उनसे कुछ कहा नहीं जाता 

क्या , बूढ़ा हो गया हूं मैं ?